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चौदहवाँ सूक्त
प्रकाश और सत्यके अन्वेषकका सूक्त
[ ऋषि घोषित करता है कि अग्नि यज्ञका पुरोहित, अंधकारकीशक्तियोंका विनाशक, सत्य-सूर्यके लोकका-उसके भास्वर रश्मियूथों व ज्योतिर्मय जलधाराओका अन्वेषक है, वह हमारे अन्दर स्थित द्रष्टा है जो यथार्थ चिन्तन और वाणीकी निर्मलताओंसे संवर्धित होता हैं । १ अग्निं सोमेन बोधय समिधानो अमर्त्यम् । हव्या देवेषु नो दधत् ।।
(अग्नि स्तोमेन बोधय) दिव्य ज्वालाको उसके संपोषक स्तुतिवचनसे जगाओ । (अमर्त्य समिधान:) अमरको सुप्रदीप्त करो । (नः हव्या) हमारी समर्पण-रूप भेंटोंको वह (देवेषु दधत्) देवोंमें स्थापित करे । २ तमध्वरेष्वीळते देवं मर्ता अभर्त्यम् । यजिष्ठं मानुषे जने ।।
(मर्ता:) मरणधर्मा मनुष्य (तम् अमर्त्य देवं) उस अमर्त्य देवकी (अध्वरेषु) अपने यात्रा-यज्ञोंमें (ईळते) कामना व पूजा करते हैं, जो (मानुषे जने) मानव प्राणीमे (यजिष्ठं) यज्ञके लिए अत्यन्त समर्थ है । ३ तं हि शश्वन्त ईळते स्त्रुचा देवं घृतश्चुता । अग्निं हव्याय वोळवेवे ।।
(शश्वन्त:) मनुष्यकी शाश्वत संततियाँ (घृतश्चुता स्त्रुचा) निर्मलताओंके चुआनेवाले चमचे1के साथ (तं देवम् ईळते) इस देवकी स्तुति करती हैं । (अग्निम् ईळते) वे दिव्य संकल्पकी उपासना करती हैं (हव्याय वोळ्हवे) ताकि वह उनकी भेटोंका वहन करे । ___________ यह चमचा है सत्य और देवत्वके प्रति मनुष्यकी अभीप्साकी निरन्तर उन्नीत गति । ८६
प्रकाश और सत्यके अन्वेषकका सूक्त ४ अग्निर्जातो अरोचत ध्नन् दस्यूञ्ज्योतिषा तम: । अविन्दद् गा अप: स्व: ।।
(जात: अग्नि:) उत्पन्न हुआ वह ज्वालामय देव (दस्यून्1 ध्नन्) घातकोंका नाश करता हुआ (अरोचत) पूरी तरह चमक उठता है । वह (ज्योतिषा तम: [ ध्नन्] ) ज्योतिसे अन्धकार पर प्रहार करता है और (गा: अप: स्व:) चमकते हुए गो-यूथों2, जलधाराओं और ज्योतिर्मय लोकं3को (अविन्दत्) प्राप्त कर लेता है । ५ अग्निमीळेन्यं कविं धृतपृष्ठं सपर्यत । वेतु मे श्रुणवद्धवम् ।।
(अग्नि सपर्यत) संकल्पशक्तिकी खोज और सेवा करो, (ईळन्यं) जो हमारी पूजाका पात्र है, (घृत-पृष्ठं कवि) वह द्रष्टा है जो अपने उपरि-भागपर निर्मलताओंसे सम्पन्न है । (वेतु) वह आये और (हवं श्रुणवत्) मेरी पुकार सुने । ६ अग्निं धृतेन वावृधुः स्तोमेभिर्विश्वचर्षणिम् । स्वाधीभिर्वचस्युभि: ।।
(अग्निं घृतेन वावृधु:) मनुष्य दिव्य संकल्पको अपनी निर्मलताओंकी भेंटसे बढ़ाते हैं । (सु-आधीभि:) विचारकों ठीक स्थान पर विन्यस्त करने वाले और (वचस्युभि:) सत्यप्रकाशक शब्दको पा लेनेवाले (स्तोमेभि:) स्तोत्रोंसे वे (विश्वचर्षणि वावृधुः) अपने कार्योंके वैश्व कर्ताको संवर्धित करते हैं । ____________ 1. दस्यु, हमारी सत्ताकी एकता और समग्रताके विभाज और विभाजन करनेवाली दिति-माताके पुत्र, जो निम्नस्थ गुफा और अन्धकारकी शक्तियॉं है ।
2.यूथ और जलधाराएं वेदके दो मख्य रूपक है । पहलेसे अभिप्रेत है दिव्य सूर्यकी एकत्र हुई रश्मियाँ, प्रकाशपूर्ण चेतनाके यूथ; जलोंसे अभिप्रेत है दिव्य या अतिमानसिक सत्ताकी प्रकाशपूर्ण गति और प्रेरणाका प्रवाह । 3. स्व:, दिव्य सौर प्रकाशका लोक जिसकी ओर हमें आरोहण करना है और जो निम्नस्थ गुफामें ज्योतिर्मय यूथोंकी मुक्ति और उसके परिणाम- स्वरूप दिव्य सूर्यके उदय के द्वारा अभिव्यक्त होता है । ८७
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